जीवन में शील निषेध का महत्व

सां सारिक दशा में मनुष्य को बहुत सारी कठिनाई और दु:खों का अनुभव व सामना करना पड़ता है। यह दु:ख और कठिनाइयां उसके उस समय का कर्मफल हैं, जिस समय वह उस कर्म को करता है। तथागत बुद्ध के अनुसार कर्मकाल या कर्मफल इंसान के शील के सुचारु परिचालन पर आश्रित होता है। अर्थात् सुख, लाभ, मधुर वाणी, मन की परिशुद्धता और निर्मलता शील के यथा आवश्यक पालन करने से मनुष्य को प्राप्त होती है। शील निद्धेश में, मनुष्य की काया, वाचा, मन की सजगता, मानसिकता और संयम इन बातों का ‘सम्यक प्रयास’ करने पर जोर दिया गया है। ताकि समता, समानता बंधुता, मैत्री ओैर करुणा, इन मनुष्य गुणों को उचित प्रकार से मनुष्य जीवन में मोड़ा जा सके और यही शील निद्धेश या शील उपदेश का सार है।
शील निद्धेश में ग्रहण करने के लिए छह बातों पर विचार किया गया है,1) शील का मतलब 2) शील को किस अर्थ से समझना 3) शील की विशिष्टता, सार प्रकटित रूप और उसका मूल कारण 4) शील के सुपरिणाम 5) शील के प्रकार 6) अशुद्ध शील और शील का मतलब। 


शील मतलब सदाचार की ओर अधिकाधिक प्रयास करना ताकि मनुष्य जीवन दु:ख मुक्त हो। समझने की बात  यह है कि, शील दु:ख विमुक्त करने का आवश्यक मार्ग है। इस संदर्भ में धम्मपद के पापवग्गो में कहा गया है कि... 

पापस्स पुरिसो कयिरा न तं कमिरा पुनप्पुनं । न तम्ही छन्दं कयिराथ दुक्खो पापस्य उच्चयो ।।9.2।।

अर्थात्, मनुष्य अगर पाप करता है, तो उसे बार-बार दोहराना उचित नहीं। ना ही उसे पाले, क्योंकि पाप का संचय दु:खकारक होता है। इसलिए मनुष्य को हमेशा सदाचारी रहने की कोशिश करनी चाहिए। तथागत बुद्ध सदाचार के बारे में कहते हैं कि...

अभित्थरेथ कल्याणे, पापा चित्तं निवारये।दन्धं हि करोतो पुञ्ञं, पापस्मिं रमते मनो।।9.1।।

अर्थात् कल्याणकारी कार्य जल्द से जल्द करें। पाप से चित्त का रक्षण करें, क्योंकि मंद गति से पुण्य करने वाले इंसान का मन, पाप करने के लिए प्रेरित होनेलगता है। 

न्याय और समता अर्थात् सत्य को जानना हो तो गौरतलब है कि शील के विस्तारित अंगों को जानना महत्वपूर्ण है। इसमें शील चेतना, शील चैतसिक, शील संवर और शील अनुल्लंघनीय है।
शील चेतना का मतलब, व्यभिचार, झूठ बोलना, जीव हिंसा, चोरी और मादक पदार्थ का सेवन करने से विरत रहना और दिए गए कुशल नियमों के अनुसार बर्ताव करना। इससे यह प्रतिपादित होता है कि, चेतना का मतलब सजगता या जागरुकता और खुद को निर्गमित करना है। अर्थात् शील चेतना का कार्य करता है।

शील चैतसिक का मतलब, जीव हिंसा, चोरी, झूठ बोलना, नशा और चोरी न करने की इच्छा न होना। यहां मानसिक प्रवृत्तियों का मनुष्य कार्य से संबंध बताता है। 

शील संवर, यहां संवर का अर्थ, प्रतिबंधित अथवा देखरेख करना है। संवर पांच प्रकार के होते है। प्रातिमोक्ष संवर यानी कि निषिद्ध की हुई बातों की रोजमर्रा देखरेख करना, ताकि अकुशल कर्म या कार्य ना हो।

स्मृति संवर मतलब जागृत होकर संवरना, अर्थात् चक्षु आदि छह इंद्रीय और उसके छह विषयों का कुशल और अकुशल भावों की स्मृति संवर करना। तीसरा ज्ञान संवर है। यह संवर, प्रज्ञा के माध्यम से तृष्णा के प्रवाह पर नजर रखता है। चौथा क्षान्ती संवर है, यह मान अपमान, शीत-उष्ण कर्म कार्यों को सहन करने की शक्ति प्रदान करता है। वीर्य संवर भी शील संवर का महत्वपूर्ण अंग है। 

शील का आखिरी अंग शील अनुल्लंघनीय है, जो अव्दर्तन, सत्कार्य, सम्यकता, करने योग्य कार्य और न करने योग्य कार्यों को परिभाषित करता है और मनुष्य कर्म को दूसरों को पीड़ा, दु:ख न हो इसलिए सचेत करता है।

तथागत बुद्ध ने शील पालन करना, उपासक, उपासिकाओं, भिक्षुगण और संघ के लिए अनिवार्य कार्य बताया है। यही मनुष्य जीवन को सुखकर और बेहतर बनाने की सबसे बड़ी कुंजी है। 

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